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२१ जुलाई, १९७१
शरीर अधिकाधिक सचेतन होना शुरू कर रहा है., त्वेकिन एक मजेदार तरीकेसे सचेतन ।
उदाहरणके लिये?
इसके लिये मानसिक रूप देना होगा, मैं नहीं दे सकती ।
(मौन)
मैं यह जानना शुरू कर रही हूं कि क्या होनेवाला है, लोग मुझे क्या कहनेवाले हैं, इसी तरह और सब... कैसे समझाया जाय?.. यह तो ऐसा है मानों परिस्थितियां, लोग और: शब्द बन गयी हू...
शरीर अधिकाधिक सचेतन है, पर मानसिक ढंगसे नहीं, हरगिज नहीं -- बल्कि... जैसे चीजें जीती है । पता नहीं कैसे समझाया जाय । कहना कठिन है... । उसे अनुभव करना होता है (लेकिन, वास्तवमें, मुझे नहीं मालूम इसे कैसे समझाऊं), अभिव्यक्तिमें मानव चेतना भागवत क्रियाको किस तरह विकृत कर देती है (सीधे प्रवाहका संकेत)... । गठन ही दरिद्री है । हम छोटा वार देते है, विकृत करते है, हर चीजका महत्व घटा देते है । हर चीजका -- हम चीजोंको जानते हैं, - दिव्य शान मौजूद है, हमारे: चारों ओर है, हमारे अंदर है -- लेकिन हमने अपने- आपको इतना जटिल बना लिया है कि हम उसे विकृत कर डालते है । हर एक ऐसा ही 'है... । अतः, भगवाने अंदरसे हमारे अंतरमें जो कुछ संगठित किया है उस सबका बहुत यथार्थ संवेदन होता है, पर उसके ऊपरी तलपर आते-आते वह विकृत हो जाता है । इस तरह कहनेसे यह बात निरर्थक-सी लगती है, पर जो कहना चाहिये उसके निकट यही है । एक ... इतनी सरल और इतनी अद्भुत बातको कहनेका हमारा मूर्खतापूर्ण तरीका है यह...! हम इतने भ्रष्ट हों गायें है कि हमेशा उसी चीजको चुनते हैं जो विकृत रुले ।
पता नहीं, स्वयं मेरे शब्द ही चीजोंको विकृत न करते हों, मगर वह ... वह चीज इतनी सरल, इतनी प्रकाशमय, इतनी शुद्ध - इतनी निरपेक्ष है । और फिर, हम उसका वह हाल कर देते हैं जो हमें दिखायी देता है : एक पेचीदा, लगभग समझमें न आनेवाला जीवन बना देते है ।
( मौन)
अव देखो, मै हू, इतनी सारी परिस्थितियां हैं, जटिलताएं हैं, लोग हैं ... सब कुछ, सब, इतनी उलझन है; और मानों सबके पीछे... केवल एक 'शक्ति' नहीं, चिच्छक्ति चैत -- वह एक 'चेतना' है -- वह... वह मुस्कान जैसी है -- एक मुस्कान... ऐसी मुस्कान जो सब कुछ जानती है । हां, यह वही है । और जब मै चुप रहती हू (खुले हाथोंका संकेत), तो ओ'सा लगता है मानों और कुछ भी नहीं है, सब कुछ अद्भुत है । और जैसे वही लोग मेरे साथ बातें करने लगते है या जैसे ही मैं किसीसे मिलती हू कि वस, सब उलझनें आ जाती हैं - और वे हर चीजका गुड़-गोबर कर देती है ।
मुझे विश्वास
हैं
कि वह इस जीवनसे उस 'जीवन'
का रास्ता है... । जब आदमी पूरी तरह उस ओर वला जायगा तो
इन्हें।!
समस्त ऊहापोह बंद हो जायगी, 'समझाने' की इच्छा बंद हो जायेगी । निगमन, परिणाम निकालना, व्यवस्थित करना - सबका अंत आ जायगा... । अगर हो सकें तो... । 'होओ -- होओ, केवल होओ, होओ किंतु हमारे लिये ... (मैंने यह देखा है) अगर हम नहीं बोलते, अगर हम नहीं सोचते, अगर हम निर्णय नहीं करते तो हमें लगता है कि हम जीवनके बाहर हैं ... और फिर हमेशा वही नीरवता नहीं होती । यह अनुच्चारित शब्द- का मौन नहीं, यह वह नहीं है. मनन-चितनका मौन है.. । यह क्रियाशील है । क्रियाशील मनन-चितनका मौन । यह वही हैं ।
निश्चय ही जीवनका नया तौर-तरीका तैयार हों रहा है । इसलिये दूसरेको उसे स्थान देना पड़ेगा ।
हम कह सकते है : कुछ नहीं जानता -- कहीं भी, कोई भी नहीं जानता -- लेकिन ऐसे लोग हैं जो अभीप्सा करते हैं (कैसे कहा जाय?), जिनमें संकल्प है, कर्षण है, अभीप्सा है, उन्हें जाननेकी आवश्यकता है - वे जानना और होना चाहते हैं, - और फिर ऐसे लोग हैं जो इन चीजोंकी परवाह नहीं करते... जो बस जीते हैं, अपने छोटे या बड़े जीवनको - वह चाहे किसी राज्यके प्रमुखका जीवन हों या किसी भंगीका, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता -- निमाये जाते हैं । वह एक हीं चीज है, एक हीं स्पंदन है । २३९ |